शायदा फफक-फफक कर रो रही थी। कुछ 25-26 साल की होगी। रात के करीब बारह बज रहे थे। उसके आस-पास दर्जनों बेहाल थके चेहरे नजर आ रहे थे। लेकिन, वो उनमें से किसी को नहीं जानती थी। उसके पास आठ साल का उसका बेटा जुनैद बैठा हुआ था। आंखों में नींद थी और समझने की शायद कोशिश कर रहा था कि आखिर हो क्या रहा है। शायदा के पास एक छोटे से बोरे में चंद सामान थे और कुछ मेडिकल रिपोर्ट। शायदा अपने बेटे जुनैद की बुखार और टीबी के इलाज के लिए चंद रोज पहले ही दिल्ली आई थी। मेहरौली के डॉक्टरों ने कहा कि जुनैद ठीक है। अब उसे वापस उत्तर प्रदेश के बदायूं पहुंचना है, जहां उसका एक साल का बीमार बेटा बूढ़े दादा के साथ है। लेकिन, कोरोना के डर से लगा कर्फ्यू लाखों लोगों की तरह शायदा के लिये भी आफत बनकर आया।
घरों में झाड़ू पोंछे का काम करने वाली शायदा विधवा है। जुनैद की समझ से परे था कि क्यों वो और उसकी मां सड़क पर रात के अंधेरे में अजनबियों की भीड़ के बीच बस स्टॉप और शौचालय के सामने बैठे थे। हालांकि, पिछले कुछ दिनों के मुकाबले शनिवार को यमुना एक्सप्रेस-वे की ओर जाती नोएडा, ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस-वे की चमकती सड़कों पर तेज हॉर्न मारती गाड़ियों की आवाज ज्यादा गूंज रही थी। थके हुए, डरे हुए गरीबों से खचाखच भरे हुए ट्रक-टैंपो यहां पर सरपट दौड़ रहे थे। शायदा लोगों से भरी हुई बसों पर नजर बनाये हुई थी, जो कभी लखनऊ तो कभी आगरा की आवाज लगाकर उसके सामने से गुजर रहीं थी। उसे समझ में नहीं आ रहा कि आखिर यह कोरोनावायरस है क्या? उसने अपना सर तो ढका हुआ था पर मुंह नहीं। उसे नहीं पता कि एकाएक गरीब लोग पलायन को मजबूर क्यों हो गए हैं। आखिर क्यों रातोंरात मजदूरों की दिहाड़ी छिन गई है। परेशान शायदा को अपना ही फोन नंबर तक याद नहीं था।