आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम के वेंकटपुरम गांव में गुरुवार तड़के केमिकल प्लांट से गैस लीक होने से 2 बच्चे समेत अब तक 8 लोगों की मौत हो चुकी है। यह गैस एलजी पॉलिमर्स इंडस्ट्री के प्लांट से लीक हुई और 4 किलोमीटर के दायरे में आने वाले 5 छोटे गांवों में फैल गई। एक हजार से ज्यादा लोग बीमार हैं। हालांकि विशाखापट्टनम में हुआ हादसा बहुत छोटा है, लेकिन गैस रिसाव की घटना ने भाेपाल गैस त्रासदी की यादें ताजा कर दीं। यहां हजारों प्रभावित व्यक्ति आज भी उसके दुष्प्रभाव झेलने को मजबूर हैं।
भोपाल में 2 और 3 दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात में यूनियन कार्बाइड कारखाने की गैस के रिसाव से हजारों लोगों की मौत हो गई थी। उस रात यूनियन कार्बाइड के प्लांट नंबर 'सी' में हुए रिसाव से बने गैस के बादल को हवा के झोंके अपने साथ बहाकर ले जा रहे थे और लोग मौत की नींद सोते जा रहे थे। लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर एकाएक क्या हो रहा है? कुछ लोगों का कहना है कि गैस के कारण लोगों की आंखों और सांस लेने में परेशानी हो रही थी। जिन लोगों के फेफड़ों में बहुत गैस पहुंच गई थी, वे सुबह देखने के लिए जीवित नहीं रहे।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना के कुछ ही घंटों के भीतर तीन हजार लोग मारे गए थे। हालांकि गैर सरकारी स्रोत मानते हैं कि ये संख्या करीब तीन गुना ज्यादा थी। इतना ही नहीं, कुछ लोगों का दावा है कि मरने वालों की संख्या 15 हजार से भी अधिक रही होगी। मगर, मौतों का ये सिलसिला उस रात शुरू हुआ था और बरसों तक चलता रहा। यह तीन दशक बाद भी जारी है, जबकि हम त्रासदी के सबक से सीख लेने की कवायद में लगे हैं।
उस रात यूनियन कार्बाइड से करीब 40 टन गैस का रिसाव हुआ था और इसका कारण यह था कि फैक्ट्री के टैंक नंबर 610 में जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस से पानी मिल गया था। इस घटना के बाद रासायनिक प्रक्रिया हुई और इसके परिणामस्वरूप टैंक में दबाव बना। अंतत: टैंक खुल गया और गैस वायुमंडल में फैल गई। इस गैस के सबसे आसान शिकार भी कारखाने के पास बनी झुग्गी बस्ती के लोग ही थे। उन्होंने नींद में ही अपनी आखिरी सांस ली। गैस को लोगों को मारने के लिए मात्र तीन मिनट ही काफी थे। कारखाने में अलार्म सिस्टम था, लेकिन यह भी घंटों तक बेअसर बना रहा। हालांकि इससे पहले के अवसरों पर इसने कई बार लोगों को चेतावनी भी थी।
जब बड़ी संख्या में लोग गैस से प्रभावित होकर आंखों में और सांस में तकलीफ की शिकायत लेकर अस्पताल पहुंचे तो डॉक्टरों को भी पता नहीं था कि इस आपदा का कैसे इलाज किया जाए? संख्या भी इतनी अधिक कि लोगों को भर्ती करने की जगह नहीं रही। बहुतों को दिख नहीं रहा था तो बड़ी संख्या में लोगों का सिर चकरा रहा था। सांस लेने में तकलीफ तो हरेक को हो रही थी। मोटे तौर पर अनुमान लगाया गया है कि पहले दो दिनों में लगभग 50 हजार लोगों का इलाज किया गया। डॉक्टरों को ही ठीक तरह से पता नहीं था कि क्या इलाज किया जाए। शहर में ऐसे डॉक्टर भी नहीं थे, जिन्हें मिक गैस से पीड़ित लोगों के इलाज का कोई अनुभव रहा हो। हालांकि गैस रिसाव के आठ घंटे बाद भोपाल को जहरीली गैसों के असर से मुक्त मान लिया गया, लेकिन वर्ष 1984 में हुई इस हादसे से भोपाल उबर नहीं पाया है।